धूप-सी उजली हुई है रात
कौन जाने
जल रहे हों चाँदनी के पाँव
घाटियाँ सुकुमार उनको डँस न जाए आग
जग उठें पगडंडियाँ भी, उचरता है काग
हैं विडालों ने लगाए घात
कौन जाने
सन न जाए लहू से हर ठाँव
पर्वतों की कोख से नदियाँ निकल बल खाँय
पेड़-पौधों से कहो तनकर खड़े हो जाँय
सजग होकर रहें पल्लव-पात
कौन जाने
ज़हर फैले अस्मिता की छाँव
नागफ़नियों ने उगाए द्वंद्व हर घर-द्वार
मसनदी बातें न होती हैं कभी उपचार
पाँव उलटे चल रहे जज़्बात
कौन जाने
कब मिलेगा स्वप्न-सा हर गाँव
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